रूपनाथ-सम्राट अशोक का शिलालेख
तहसील बहोरीबंद के ग्राम पडरिया नया जिला कटनी पुराना जिला जबलपुर में स्थित है जो कि जबलपुर से लगभग 83 किलोमीटर दूर है।
सम्राट अशोक के ई0पूर्व तीसरी शताब्दी के शिलोत्कीर्ण धर्मादेश में एक यहां प्राप्त हुआ है। जिस गोलाश्म पर यह लेख उत्तीर्ण है वह एक गहरा लाल रंग का है, जो निचले तालाब के पश्चिमी सीमान्त पर स्थित है। पूर्वोक्त शिला लेख साढ़े चार फुट लंबा, और 1 फुट चैड़ा है तथा उसमें 6 पंक्तियां है। जिनके विषय में विश्वास किया जाता है कि वे ई0 पूर्व लगभग 232 में उत्कीर्ण की गई थी। धमादेश स्थानीय बौद्ध संध को संबोधित किया गया है जिससे यह पता चलता है कि उसे जारी करने के ढाई वर्ष पूर्व महान् मौर्य सम्राट बौद्ध बन चुका था। उसका उद्देश्य संध के सदस्यों को उत्साही बनने तथा कर्तव्य परायण जीवन व्यतीत करने के लिये प्रोत्साहित करना था। उक्त शिलालेख प्राचीन भाषा ब्राम्हीलिपि तथा पाली लिपि में लिखे गये है।
रूपनाथ के शिलालेख का हिन्दी अनुवाद
(क) देवानांप्रिय ने ऐसा कहाः-
(ख) ढाई वर्ष और कुछ अधिक व्यतीत हुये मैं प्रकाश रूप से शाक्य था।
(ग) किन्तु मैनें अधिक पराक्रम नहीं किया।
(घ) किन्तु एक वर्ष और कुछ अधिक व्यतीत हुये जबकि मैंने संघ की यात्रा की है (तबसे) अधिक पराक्रम करता हूं।
(ड) इस काल मं जम्बू दीप में जो देवता (मनुष्यों से) अमिश्र थे वे इस समय (मेरे द्वारा) (उनके साथ) मिश्र किये गये है।
(च) पराक्रम का ही यह फल है।
(छ) यह (केवल) उच्च पदवाले (व्यक्ति) से प्राप्त नहीं होता (किन्तु) क्षुद्र (व्यक्ति) से भी पराक्रम द्वारा विपुल स्वर्ग की प्राप्ति शक्य है।
(ज) और इस प्रयोजन के लिये श्रावण (उद्घोषणा) की व्यवस्था की गई जिससे क्षुद्र और उदार सभी पराक्रम करे और (मेरे) सीमावर्ती लोगा भी (इसे) जानें (और) यह कि यहीं पराक्रम चिरस्थायी हो।
(झ) यह प्रयोजन (मेरे द्वारा) अधिकाधिक बढ़ाया जायेगा, और विपुलतया बढ़ाया जायेगा कम से कम डेढ़ गुना बढ़ाया जायेगा।
(झ) इस विषय को अवसर के अनुकूल पर्वत पर उत्कीर्ण करावें और यहां जहां भी शिलास्तंभ हों, शिला-स्ंतभों पर लिखवायें।
(ट) और इस श्रावण (उद्घोषणा) के अक्षर के अनुसार (आप) सर्वत्र (एक अधिकारी) भेजें जहां तक आपके आहार (जिले) का विस्तार हो।
(ठ) यह श्रावण (उद्घोषणा) मेरे द्वारा यात्रा (व्युष्ट) के समय किया गया जब
(ड.) 256 पडाव (निवास) यात्रा में बीत चुके थे
ASHOKA ROCK EDICT OF RUPNANTH
सम्राट अशोक के ई0पूर्व तीसरी शताब्दी के शिलोत्कीर्ण धर्मादेश में एक यहां प्राप्त हुआ है। जिस गोलाश्म पर यह लेख उत्तीर्ण है वह एक गहरा लाल रंग का है, जो निचले तालाब के पश्चिमी सीमान्त पर स्थित है। पूर्वोक्त शिला लेख साढ़े चार फुट लंबा, और 1 फुट चैड़ा है तथा उसमें 6 पंक्तियां है। जिनके विषय में विश्वास किया जाता है कि वे ई0 पूर्व लगभग 232 में उत्कीर्ण की गई थी। धमादेश स्थानीय बौद्ध संध को संबोधित किया गया है जिससे यह पता चलता है कि उसे जारी करने के ढाई वर्ष पूर्व महान् मौर्य सम्राट बौद्ध बन चुका था। उसका उद्देश्य संध के सदस्यों को उत्साही बनने तथा कर्तव्य परायण जीवन व्यतीत करने के लिये प्रोत्साहित करना था। उक्त शिलालेख प्राचीन भाषा ब्राम्हीलिपि तथा पाली लिपि में लिखे गये है।
रूपनाथ के शिलालेख का हिन्दी अनुवाद
(क) देवानांप्रिय ने ऐसा कहाः-
(ख) ढाई वर्ष और कुछ अधिक व्यतीत हुये मैं प्रकाश रूप से शाक्य था।
(ग) किन्तु मैनें अधिक पराक्रम नहीं किया।
(घ) किन्तु एक वर्ष और कुछ अधिक व्यतीत हुये जबकि मैंने संघ की यात्रा की है (तबसे) अधिक पराक्रम करता हूं।
(ड) इस काल मं जम्बू दीप में जो देवता (मनुष्यों से) अमिश्र थे वे इस समय (मेरे द्वारा) (उनके साथ) मिश्र किये गये है।
(च) पराक्रम का ही यह फल है।
(छ) यह (केवल) उच्च पदवाले (व्यक्ति) से प्राप्त नहीं होता (किन्तु) क्षुद्र (व्यक्ति) से भी पराक्रम द्वारा विपुल स्वर्ग की प्राप्ति शक्य है।
(ज) और इस प्रयोजन के लिये श्रावण (उद्घोषणा) की व्यवस्था की गई जिससे क्षुद्र और उदार सभी पराक्रम करे और (मेरे) सीमावर्ती लोगा भी (इसे) जानें (और) यह कि यहीं पराक्रम चिरस्थायी हो।
(झ) यह प्रयोजन (मेरे द्वारा) अधिकाधिक बढ़ाया जायेगा, और विपुलतया बढ़ाया जायेगा कम से कम डेढ़ गुना बढ़ाया जायेगा।
(झ) इस विषय को अवसर के अनुकूल पर्वत पर उत्कीर्ण करावें और यहां जहां भी शिलास्तंभ हों, शिला-स्ंतभों पर लिखवायें।
(ट) और इस श्रावण (उद्घोषणा) के अक्षर के अनुसार (आप) सर्वत्र (एक अधिकारी) भेजें जहां तक आपके आहार (जिले) का विस्तार हो।
(ठ) यह श्रावण (उद्घोषणा) मेरे द्वारा यात्रा (व्युष्ट) के समय किया गया जब
(ड.) 256 पडाव (निवास) यात्रा में बीत चुके थे
ASHOKA ROCK EDICT OF RUPNANTH
near Jabalpur Madhyapradesh
The Ashoka rock edict of Rupnanth in the bahuriband 15 Miles north-west of Sihora new District Katni. Distance of around 64 k.m. from the JABALPUR Constitutes the earliest Indmark of authentic history of the District and carries it back to the third century B.C. th the region of Asoka one of the greatest emperors of India.
In the Rupnath Edict, the beloved of the gods as he is styled in these records speaketh thus:- 'It is more than thirty two years and a half that I am a hearer of the Law and I did not exert myself strenuously but it is a year and more that I have entered the community of monks and that I have exerted myself strenuously. Those gods who during this time were considered to be true gods in Jambudwipa have now been abjured. Through exertion comes the reward and it cannot be obtain by greatness. Even a lowly man who exerts himself may attain heaven high though it is. And for this same putpose this precept has been inculcated. Let both the slowly, and those who are exalted exert themselves and in the end gain true knowledge and this manner of acting should be of long duration'.
The record finaly ends with a date stating that 256 years had then elapsed since the departure of the Teacher, that is Buddha, whice shows that it mut have been engraved about the year 232 B.C. very shortly before the emperor's death.
REFRENCE BY DISTRICT GAZETTERS JABALPUR 1909
Keep posting such informative articles thank you
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